अभी दिल ने चाहा है रोना-रुलाना !
अभी-अभी एक नए शोध के बारे में पढ़ा जिसमें दावा किया गया है कि बिना जिम, दवाओं और योग के भी मोटापा भगाना संभव है। आपको करना इतना भर है कि रोज़ कुछ देर रोने की आदत डाल लीजिए। रोने से शरीर में कार्टिसोन नाम का हार्मोन बनता है। देह में इस हार्मोन का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता है, वज़न वैसे-वैसे घटने लगता है। विचित्र यह है कि यह हार्मोन संध्या के समय ज्यादा बनता है। अब पता चला कि हमारे कवियों-शायरों की देह पर कभी मांस क्यों नहीं चढ़ता। बेचारों के जीवन का ज्यादातर हिस्सा रोने में ही गुज़रता है। खासकर शाम को विगत प्रेम की स्मृतियां जवान होते ही उनके आंसू के बांध टूट पड़ते हैं। लोग किशोरावस्था और जवानी के शुरूआती सालों में आमतौर पर मोटे नहीं होते। इसीलिए कि वे रोते बहुत है - परीक्षा में रिजल्ट के लिए, नौकरी के लिए, प्रेम सफल हुआ तो मिलन के लिए और नाक़ाम हुआ तो रिजेक्शन के दुख में। शादी और कामधंधे के बाद मर्द आमतौर पर दुनियादार हो जाते हैं। रोना बंद हुआ कि पैतीस-चालीस साल की उम्र आते-आते उनकी देह पर चर्बी चढ़ने लगती हैं। शादीशुदा औरतों की स्थिति भिन्न है। वे सबसे ज्यादा रोती हैं। कभी पति के बदलते व्यवहार पर, कभी गहनों-कपड़ों के लिए, कभी सैर-सपाटे या गोलगप्पे के लिए तो कभी पति महाशय के विवाहेत्तर संबंधों के संदेह पर। यहां तक कि सास-बहू के सीरियल देखकर भी। इतना रोने के बावजूद शादी के कुछ ही साल बाद मुटल्ली होने वाली औरतों की संख्या प्रचंड है। इस विरोधाभास का जवाब मुझे शोध के उस हिस्से में मिला जहां लिखा है कि रोना स्वाभाविक होना चाहिए। रोने की नौटंकी या ढोंग करने से न तो कोई हार्मोन-वॉर्मोन बनता बनता है और न वज़न में कमी आती है।
शोध का छुपा हुआ अर्थ आप खुद समझ लीजिए ! अब मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि यह कह दूं कि विवाहित औरतों का रोना-धोना ज्यादातर बनावटी होता है जिसका उद्देश्य पति की इमोशनल ब्लैकमेलिंग के सिवा कुछ नहीं !
ध्रुव गुप्त सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी