ताड़ का फेदा और ताड़

फोटो में जो दिख रहा है वो ताड़ का फेदा है, मतलब ताड़ का पका हुआ फल। ताड़ का पेड़ किसी ज़माने में बड़ा उपयोगी और फ़ायदेमंद हुआ करता था, अब यह एक बेकार का पेड़ बन गया है - ज़्यादातर। वो इसलिए हुआ क्योंकि आदमी (?) ज़रूरत से ज़्यादा विकास (फ़र्ज़ी और अप्राकृतिक ही सही) कर गया है, फिर भी हाय हाय है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता। बहरहाल, ताड़ के फ़ायदे पर आते हैं।


इसके पेड़ के हर भाग का अद्भुत इस्तेमाल था। लोग इसकी जड़ और कोंपल खाते थे, और क्या मस्त स्वदिष्ट और ताक़त प्रदान करनेवाला हुआ करता था। इसके पत्तों से चटाई और तरह तरह के बटलोही और बट्टा (बहुतों को पता भी नहीं होगा कि यह किसे कहते हैं) बनाया जाता था और यह बैठने और अनाजों को रखने के काम में आते थे। इसके पत्ते के डंठल बच्चों की गाड़ी हुआ करती थी, एक बच्चा बैठता था और दूसरा उसे खींचता था। खेल का खेल और शारीरिक अभ्यास का अभ्यास हो जाया करता था। बाक़ी इसके पत्तों की घड़ी बनाकर हम बच्चे पता नहीं कितनी देर तक पहने तहते थे और वो भी एक से एक बड़ी-छोटी और एकतल्ला-दुतल्ला घड़ी।


इस पेड़ में भी स्त्री और पुरुष हुआ करते हैं। पुरुष प्राजाति के पेड़ फल नहीं देते थे बल्कि उसमें एक ख़ास प्रकार का डंठल निकलता है जिससे ताड़ी निकाला जाता है। वो ताड़ी सेहतमंद, पौष्टिक और पेट के लिए बहुत फायदेमंद हुआ करते थे, लेकिन इसे धूप लगने से पहले ख़ाली पेट पीना होता था। धूप लगने के बाद इसमें नशा हो जाता है, जिसे लोग नशे के लिए भी ग्रहण करते हैं और फिर वो संसार के सबसे ताक़तवर प्राणी हो जाते हैं, जब तक नशा रहता है तबतक। चखने के साथ लबनी के लबनी पेट में उड़ेल लेना भी एक कला थी। लबनी में ताड़ के पत्ते लगाकर गटागट पीना भी एक कलाकारी ही थी। खजूर और ताड़ के पेड़ के सहारे पासी जाति के लोगों का भरणपोषण पता नहीं किस काल से होता आया है।


स्त्री प्राजाति में फल आते हैं और वो बड़े-बड़े और गोलाकार होते हैं, जिसके भीतर कोवा होता है। जिसे खाया जाता था। कौवा निकलना भी एक अद्भुत कला थी, जिसे पासी लोग ही कर पाते थे। वो पेड़ पर दनादन चढ़ जाते और ढ़ेर सारे फल काट देते थे और फिर एक अद्भुत कलाकारी से उन फलों को हंसुली (एक धारदार तेज़ हथियार) से छीलते थे और इस प्रकार कोवा निकलता था। फिर कोवा खाने के बाद इसके फल के बचे हिस्से से गाड़ी बनाकर घंटों उसे चलाना भी एक अद्भुत खेल हुआ करता था। वैसे इसके फल अद्भुत स्वादिष्ट, रसदार और ताक़त देनेवाला तो था। यह फल जब पाक जाते हैं तब पेड़ से अपनेआप ही गिरते हैं और इसका गुदा अद्भुत स्वादिष्ट होता है। पकने के बाद इनके भीतर एक ख़ास प्रकार के सुगंध का भी आगमन होता है, जो कमाल की मदहोशी से भरपूर होता है। गूदे को खाना और उससे तरह-तरह के पकवान भी बनाया जाता है। उसे गेहूं या मकई के आटे में मिलकर पुआ और तरह-तरह के मिठास भरे पकवानों को बनाना और खाना भी एक कलाकारी ही थी। निश्चित रूप से इनके फल में कुछ आयुर्वेदिक गुण भी होंगें और औषधीय ताक़त भी।


इसके पेड़ की अलग-अलग प्राजाति भी होती है, लेकिन सबसे ज़्यादा मज़ा काले वाले फल में होता था, उसकी मिठास के आगे बाक़ी सबकी मिठास कमतर ही थी। हम उसे डोमा फेदा के नाम से पुकारते थे। जब भी कभी उसके गिरने की आवाज़ आती हम भागकर जाते और लूटकर ले आते, और अगर पका हुआ है तो फौरन खाने लगते और थोड़ा कम पका है तो उसे अनाज के भूसे में अंदर घुसाकर रख दिया करते थे, ताकि वो अच्छे से पक जाए। भूसे में फलों के पकाने का भी अपना एक अलग विज्ञान था, और सुरक्षित भी था। बाक़ी आजकल तो एक से एक कैमिकल डालके पका देते हैं लोग और वो कितना नुकसानदेह होता है मानव शरीर के लिए वो हम सबको पता है, लेकिन अब कौन चिंता करता है क्योंकि अब तो हमारा पेट एक कूड़ेदान है।


पके हुए फल को खाने के बाद उसके आंठी (बीज) को ज़मीन में गाड़ दिया जाता और जब वो अंकुरित हो जाते थे तो उसे निकालकर उसे किसी हथियार से फाड़ लिया जाता था और उसके बीच से क्या स्वादिष्ट माल निकलता था और अगर यह थोड़ा बड़ा हो जाता था तो उसे परम कहते थे, उसे पानी में उबालकर खाया जाता था, उसका भी एक अलग मज़ा और स्वाद होता था।


अब इसके तने की बात करते हैं, तो यह इतना मजबूत होता है कि घर की छत बनाने में इन्हें शहतीर और कड़ी के रूप में इसका इस्तेमाल सदियों से होता आया है। गांव में आज भी कई घरों में यह देखा जा सकता है, लेकिन अब सीमेंट और गिट्टी और छड़ का ज़माना आ गया तो धीरे-धीरे इनका प्रयोग लुप्त हो गया।


एक सबसे ज़रूरी बात यह कि देहात में कई ऐसे समुदाय भी थे जिनके पास भरपेट खाने को नहीं होता था और सामंती समाज में वो अपने मालिक के रहमोकरम पर जीते थे, यह फल कभी उनके पेट भरने का सहारा भी हुआ करता था।


आजकल अब इनको कोई नहीं पूछता। अब ये बेकार में ही उगते, बढ़ते, फल देते हैं। सबको अब खाद वाले बाज़ारू भोजन ही पसंद आते हैं, चिकना चिकना। वैसे अब एक से एक पेट के रोग भी हैं ज़माने में! अब बच्चे मैगी, चाउमीन, पास्ता भकोसने वाले हैं, यह सब फल देखकर उनको उल्टी भी आ सकती है!


इंसान ने हजारों-हज़ार साल में बहुत कुछ प्राकृतिक खाना सीखा था लेकिन बाज़ार अब सबको अपना उत्पाद खिलाता है और हम सब मस्त खाते भी हैं। बहरहाल, आज सुबह-सुबह टहलते हुए इसके फल को लावारिश पड़ा देखा तो बहुत सारी बातें याद हो आईं! बहुत कुछ अच्छा था जो अब नहीं है लेकिन यह भी तय है कि वापस लौटकर प्रकृति के पास ही आना है, हवाबाज़ी से ज़्यादातर काम बनता नहीं बल्कि बिगड़ता ही है। देखिए, आजकल बड़े बड़े लोग ऑर्गेनिक खेती वाला माल खा रहे हैं शरीर को सुरक्षित रखने के लिए। वैसे अच्छा आदमी, अच्छे विचार और बिना खाद और रसायन के फल सब्ज़ी का स्वाद तुम क्या जानो चुन्नी बाबू!


Punj Prakash